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छोटी सी भूल

छोटी सी भूल

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दरवाज़े पर दस्तक़ हुई तो

अलसाई आंखे पहले घड़ी की ओर गयीं

देखा तो दोपहर के तीन बजे थे,

कुछ समझ पाती इससे पहले ही 

दोबारा दस्तक़ हुई ।


आती हूँ की आवाज़ देकर नंगे पाँवो ही

दरवाज़े पर पहुँची , खोलने से पहले 

पूछा कौन है तो जवाब आया, मैं हूँ...

दिल धक सा हो गया वो दो शब्द सुनकर

क्या हुआ जो बरसो बाद उस आवाज़ को सुना

आज भी उसे उसकी आवाज़ से ही

अपने अंदर महसूस किया ।


उसके फिर दस्तक देने से सुध आई

दरवाज़े की चिटकनी धीरे से हटाई,

हाँ वही था, कैसे न पहचानती उसे

जिसके दिए ज़ख्म आज भी रिसते है।

कागज़ के चंद टुकड़ो पर बिखेरा था

उसने कभी सपनो का घर मेरा,

कुछ अपने अहं में तो कुछ 

किसी और को खुश करने में।


वो अब भी मेरे दरवाज़े पर खड़ा था

और मैं चाहकर भी उसे कह ना पाई कि

भीतर आओ, और देखो ये है मेरा नया बसेरा

जहाँ शायद जमाने भर के आधुनिक सुख

भले ही न हो मगर, बसती है ढेरो खुशियां

और वो सम्मान भी जिसके लिए 

तरसती थी कभी, मेरी अखियाँ ।


ना जाने कैसे उसने पहली बार मेरी आँखे पढ़ी

और वही खड़े खड़े अपने आने की वजह कही ।

बोला शायद मुझे मेरे ही कर्मो ने सज़ा दी है

जो आज तुम दोनों, मेरे होकर भी मेरे नहीं हो ।

जा रहा हूँ तुम सबसे दूर, हमेशा के लिए

आखिरी बार चाहा था,कि

 देख लूँ जी भर कर तुम्हें ।


मैं स्तब्ध थी, निःशब्द थी 

हाँ मगर इस बार पहले सी

कमज़ोर नही थी , 

उसने पलटकर एक बार और देखा

झुक गया सर उसका जोड़ हाथों को अपने

पहली दफ़ा उसकी झुकी पलकों पर मैंने

तब था आँसू देखा ।

किरच सी चुभी हो जैसे दिल में मेरे

उसे ऐसी हालत में तो देखा नही था,कभी मैंने ।


कल और आज के भँवर में कुछ, उलझ सी गई

निग़ाह पढ़ी उसके हाथों पर तो

जैसे मैं सिहर सी गई ,

हाँ उसके हाथों में लगी मोहर देख 

इतना तो समझ गई कि इसे मेरी याद

तब आई , जब उन सबने इसे छोड़ा, 

जिन्हें इसने मुझसे ज्यादा था, अपना समझा ।


हाँ देर कर दी बहुत उसने इस दर पर आने में

और बेहिचक हो कर दरवाज़ा खटखटाने में ।

चला गया वो एक बार फिर,बिन कुछ कहे

तब भी छोटी सी भूल थी,और आज भी

भूल बैठा कि हक़ ना सही मुझ पर 

मगर इंसानियत का फ़र्ज़ है, कि 

पास ना होकर भी मैं उसका साथ तो देती ।

अकेले नहीं हो इस सफ़र में, इतना तो कहती ।


काश वो एक बार मुझे ,अपना तो समझता

हमसफ़र न सही, दोस्त ही कहता,

ये वादा था मेरा, उम्र भर फिर, यूँ तन्हा तो न होता।


मैं आज भी खड़ी होती हूँ दरवाज़े पर 

इस आस में कि वो शायद फिर आएगा , 

और इस बार मुझसे, कभी दूर नहीं जा पाएगा।।



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