चाहती हूँ...
चाहती हूँ...


चाहती हूँ कुछ पल को तेरे सीने में
अब दफ़न हो जाना ।
कि अब और नही भीग सकती मैं
अपने ही अश्कों में।
चाहती हूँ गीली रेत पर तेरे संग नंगे पाँव
कुछ और क़दम चलना ।
कि अब और नहीं चीख सकती मैं
अपनी ही ख़ामोशी में।
चाहती हूँ खुले आसमान में तेरे संग
हर शब तारो को गिनना ।
कि अब और नही चल सकती
अपने ही ख़्यालों में।
हाँ माना मैं बहुत कुछ चाहती हूँ..
मगर
कि अब और नहीं उलझ सकती
अपने ही सवालों में....