नारी मन का संतुलन
नारी मन का संतुलन
मैं नारी मेरा व्यवहार,
संतुलन की कसौटी पर,
सदैव खरा ही उतरा।
अपने परिधानों के चयन में,
कभी कोई कमी नहीं रखी,
की जमाने वालों की नज़र में,
मै अभद्र कहलाऊं।
पहले मेरे इस संतुलन से,
सभी अचम्भित हुआ करते थे।
जिदंगी में मेरे असंतुलन का,
कही नामो-निशान नहीं था।
मैं जो भी करती ,
नपा तुला करती......,
मुझे अहसास होता कि ,
मुझे सब कुछ आता है,
सर्वश्रेष्ठता के मापदंडों पर,
स्वयं को श्रेष्ठ मान,
अंदर ही अंदर खुश होती।
तकाजा देखिये जिदंगी का,
मेरें संतुलन की परिभाषा,
कुछ लोगों की नजरों में,
धीरे-धीरे अखरने लगी।
वक्त का आलम ऐसा छाया,
जो कभी मेरे मुझे निपुणता की,
कसौटी पर सटीक मानते थे,
वे अब मेरे हर काम में,
मेरी कमियां निकालने लगे।
संतुलन असंतुलन के बीच मैं ,
अधर झूल सी झूलने लगी,
मुझमें आत्मविश्वास भी ,
अब हौले हौले से खोने लगा ।
मेरी अच्छाइयां अब ,
कमियों मे तब्दील होने लगी।
मेरी सहजता, सरलता,
दीवारों की पपड़ियों की तरह,
धीरे-धीरे गिरने लगी,
मेरी सकारात्मकता वाली सोच ,
बदरंगी दीवारों सी होने लगी ।
नपे तुले से शब्द,
अधखिली मुस्कान,
बिखरे बिखरे बाल,
सब अस्वाभाविक सा होने लगा ।
सब कुछ बदल गया ,
मेरा अस्तित्व, मेरा व्यक्तित्व,
मेरे जिदंगी के मापदंड,
सब कुछ, सब कुछ ।
आखिर क्यों हुआ ऐसा?
प्रश्नचिन्ह बनकर रह गई मैं ,
और मेरी जिंदगी की कहानी ,
मैं नारी थी ,इसलिए शायद,
या वैचारिक संतुलन के साथ,
समायोजन करने में मैं,
असमर्थ थी वक्त के साथ ,
वक्त की दहलीज को पार करते ही,
जिदंगी के सारे अध्याय बदल गए ।।
