चौकीदार
चौकीदार
वो दिन रात मेरी चौकीदारी करता है।
काले बुर्खे में छिपाकर मुझे
मेरी जुबाँ पर पाबंदी लगाना चाहता है।
वो भूल गया है शायद आँखों की भी
अपनी एक जुबाँ होती है।
मेरी सोच, मेरे विचारों को वो बदलना चाहता है।
मुझे मारकर, मेरे भीतर अपनी आत्मा डालना चाहता है।
हर बार वो सही और मैं गलत होती हूँ।
इस बात का फैसला भी अक्सर वही करता है।
हर रोज़ एक नयी सीमा रेखा
वज़ह, कभी मेरे लिए उसका असीम प्यार
कभी उसके कंधों पर मेरी सुरक्षा का भार
हर रिश्ता मेरी सीमायें तय करने पर तुला है।
समझ नहीं पाई क्यों मैं इतनी असुरक्षित हूँ इस समाज में ?
या यह समझूँ कि वो खुद असुरक्षित है।
आत्मविश्वास की कमी से जूझ रहा, हीन भावना से ग्रस्त एक शख्स है।
मेरी सीमायें तय करके, मेरी सोच को नियंत्रित करके
वो शायद स्वयं को सुरक्षित कर रहा है।