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ARVIND KUMAR SINGH

Tragedy

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ARVIND KUMAR SINGH

Tragedy

चाणक्‍यों का दौर

चाणक्‍यों का दौर

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 इंसान को काटे मर जाऐ सांप, नहीं अचरज की कोई बात,

कुत्‍तों को भी शर्म है आती, जब मासूमों पर होती घात।

 

बेईमान से डरती शराफत, हसरत भी मरती जीने की,

देख मौत का ताण्‍डव चहुं दिश, धड़कन बढती सीने की।

 

लाश ले जा रही पालकी देखो समाज के ठेकेदारों की,

फिर से कहीं कोई बली चढ़ गई लुटे हुए अरमानों की।

 

लूट के अस्‍मत जान भी ले रहे चौराहों पर शैतान,

दुष्‍टों की इस दुनिया में न इज्‍जत बचे न जान।

 

मुट्ठी खोल के कानून दिखाते, ताकत पर इतराते हैं,

जिसको चाहेें जहां भी मारें, तनिक नहीं कतराते हैं।

 

डर दहसत की आग फिजा में, लहू आसमान से बरसे,

चाणक्‍यों के इस दौर में भैया, कृष्‍णावतार को तरसे।


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