चाह नहीं मेरी कि मैं
चाह नहीं मेरी कि मैं
चाह नहीं मेरी,
किसी के सपने में, मैं आऊँ
सिवाय उस 'आसमां' के जिसके होने से मैं खुद के होने का
एहसास पाता जाऊँ।
खुद के ही बुने सपनों की माला में, मैं संग- संग गूँथता जाऊँ।
चाह नहीं मेरी कि, किसी के काम बिगाड़ने के
अजलंक अपने सर पर चढाऊँ।
मेरी चाह बस इतनी है कि,
मैं बिगड़ते हुए को कैसे बनाना है ?
जितने हो सके इसका अनुपालन करता जाऊँ।
चाह नहीं मेरी कि, किसी को अपनी मतलब
निकालने के लिए इस्तेमाल कर जाऊँ!
मेरी ख्वाहिश बस इतना है कि
मैं मतलब की दुनिया से जितना जल्दी हो सके मुक्ति पा जाऊँ।
चाह नहीं मेरी कि, किसी के विश्वास को तोड़कर मैं इठलाऊँ!
मेरी चाह तो सिर्फ इतना है कि मैं उनके भरोसे पे खरा उतरता जाऊँ।
चाह नहीं मेरी कि, मैं किसी के भावना से खेल जाऊँ!
मेरी चाह बस इतना है, कि मैं उम्मीदों को जीतता जाऊँ।
चाह नहीं मेरी कि, मैं पुनीत ऊर्वर भूमि पे नफरत का बीज बोते हुए खुद को !
या खुद के द्वारा किसी को भी बोते हुए पाऊँ!
मेरी चाह सिर्फ इतना है कि, मैं बंजर भूमि पे भी
प्रेम के सौरभ पुष्प खिलाकर फिजां गुलजार कर जाऊँ।
चाह नहीं मेरी कि, मैं किसी की हाथों की कठपुतली बन जाऊँ!
मेरी चाह इतना है कि मैं काठ में भी आशाओं की संचार कर जाऊँ।
चाह नहीं है मेरी कुछ कि, किसी को सलामत रख पाऊँ!
मेरी चाहत बस इतना है कि उस मधुर मुस्कान को
महफूज़ रख अपनी अमानत अपनी पाऊँ।
मेरी चाह बस इतना है कि उस हाथ को जिस हाथ को मैंने थामा है !
उसका सदैव, सतत्, हर जन्म-जन्मान्तर तक साथ निभाऊँ।
हमशाये कि तरह साथ रहूं उसके, हमदर्द बन हर सफ़र में हमसफ़र बन जाऊँ।
चाह नहीं मुझे जीने कि,
मेरी चाह बस इतना है कि मैं आसमां में,
आसमां के लिए उसके रूह बनकर उसमें जीता जाऊँ।