बसने दो पूरे शहर सा खुद में
बसने दो पूरे शहर सा खुद में
तुम औरतें न जानें क्या-क्या उम्मीद लगाते हो
एक मर्द से वो सिर्फ़ एक महफ़ूज़ आँचल तलाशता है तुम में..
आँधी का हाथ पकड़ कर चलता है बंदा थकी रीढ़ लिए,
उस शख़्स को अपनी मादा से चंद पल गुटरगूँ करने दो..
दिन के गम उसे नमकिन लगते हैं, हसीन शाम के साये में एक कोना
मीठे पानी के झरने सा ढूँढता है तुम्हारी आगोश में सर रखते..
देखो कहीं टूट न जाए कांच के ख़्वाब है बिखरे हुए है
उसके ख़्वाबगाह की ज़मीं पर,
समेट लो अपनी हंसी में चाहत की धनक भर कर..
इस वक्त शिकायतों का कोई सफ़ा मत पलटो,
ऊँगली फेरते एक झपकी से गुज़रने दो सूखा फूल महक उठेगा..
चिंताओं की ख़ाल उधेड़कर रख दी है तुम्हारी गोद में सनम ने,
उर की खिड़कियां खोल दो और बसने दो पूरे शहर सा खुद में।
