बोझ ख़ामोशी का
बोझ ख़ामोशी का
बीत रही है उमर, खामोशी में
दिल के अनकहे अल्फ़ाजों में,हर रात के उलझे सवालों में
खुद से खुद को देते जवाबों में, नाउम्मीदी की बोरी में
भोले -भाले बचपन में, मासूमियत और लड़कपन में
घर की चार दीवारी में, पुराने सोच की लाचारी में
बीत रही है उमर, खामोशी में
पिता की इज्जत रखने में, माँ के संस्कार बचाने में
ससुराल की मर्यादा में, भैया से किए वादे में।
हर एक मुस्कुराहट की भारी कीमत में
सुबह शाम की जिल्लत में, नाम भर के फुर्सत में
बीत रही है उमर, खामोशी में
चौका -बर्तन की जिम्मेदारी में, घर वालों की जी हुजूरी में
गोल - गोल सी रोटी में, तवा पर सेंकते सपनों में
एक आदर्श बहु की घूंघट में
समाज की लाज में , डूबी रहूं काम काज में
बीत रही है उमर, खामोशी में
मैं असह्य बोझ तले दबती गई , अपमान का घूँट पीती गई
व्यथा और कष्ट से खुद को भरती रही
बुढ़ापे तलक होठों को सिलती रही
आँखों के सैलाब को दिल के आग में झोंकती गई
बीत रहा हर वक्त
खुद की नजर, खुद से चुराने में
बीत रही है उमर, खामोशी में।
