बन्दी
बन्दी
स्वच्छंद नील गगन में विचरने वाला पक्षी तोता,
बन्दी बना असहाय बैठा है बन्द पिंजरे के भीतर,
भूख लगने पर लगाता गुहार अपनी मीठी आवाज़ में,
तो दयालु गृहस्वामिनी खिला देती भोजन कुछ,
था क़ैदी फिर भी प्रेम की डोर से बंधा था पक्षी का दिल,
आस थी मन में उन्मुक्त हो उड़ जाये फिर से आकाश में,
हाँ दें हवा अपने पंखों को आ बैठे मुंडेर पर इसी घर की,
खिलाती जहां ग्रहणी मातृप्रेम से परिपूर्ण सुखमय भोजन।
भरपूर मिल रहा प्यार परन्तु छिन चुकी है स्वतंत्रता,
भरने की उड़ान, जीने का यह छोटा सा जीवन अपनी चाहत से,
पकड़ कर खड़ी माँ को बच्ची मानो कर रही हो आग्रह अपनी,
घबराई सी आँखों से करने को रिहा पिंजरे में बन्दी बनें परिंदे को,
ज्यों देख रही हो प्रत्यक्ष उठती गिरती लहरों की हलचल को पक्षी के भीतर,
है माँ भी कर रही उजागर दुविधा अपनी ख़ामोश नेत्रों से,
छोड़ दे कैसे इस तोते को पाला पोसा जिसे लाड़-प्यार से,
होती है सुबह परिवार की जब तड़के उठाता ये ले के राम का नाम।
है बन्धन बड़ा ही मधुर प्यार का परन्तु होने लगती है घुटन इसमें भी,
न चल सके यदि अपनी चाह की राह पर तो होने लगती है छटपटाहट,
पिंजरा हो पक्षी का या हों मानव के पांवों में बेड़ियों
औचित्यहीन परम्पराओं की,
तोड़ कर बन्धन सारे उन्मुक्त हो उड़ आकाश को छू लेने की,
आवश्यक है प्रेम से भरपूर उन्मुक्त संसार प्रत्येक प्राणी को जीने के लिये,
परिन्दा हो या मानव ।।
