बिखराव
बिखराव
एक अनसुलझा वहम
ज्वलंत होता अहम्
कुलबुलाती खुरचती उलझनें
झांझावती अलगाव
चक्रवाती टकराव
धड़ाऽऽऽऽऽऽऽक
फटाऽऽऽऽऽऽऽक
चिर्र र्र र्र र्र र्र र्र र्र….
गिरते पटकते फटते उड़ते
दर्द के साथ उभरे
उपेक्षित होते एहसास
मनोबल तोड़ते घाव
देह चीरते रक्तिम स्त्राव
क्लेश के पेचीदे दांव
ज़मीन से उखड़ते पाँव
आहत होता प्रेम
रिश्ते होते बेज़ार
कैसे हो नैया पार
अब किसको क्या मिला
अरमानों का दबा गला
कुछ ना रहा शेष
हर तरफ सन्नाटा
मौन साधे एक मंज़र
चाहे रिश्ता हो,सपने हो,भाव हों
नज़र में अब कुछ है तो
कभी ना सुलझने वाला
कभी ना सिमटने वाला
बस बिखराव… ही बिखराव।
