भरोसे की इबारत
भरोसे की इबारत
तुम मिले......
कई जिल्दों में बंधी किताब से,
पढूँ या न पढूँ?
बस इसी कशमकश में छुआ.....
उस मखमली जिल्द को,
और तुम-
सफ़हा दर सफ़हा खुलते गए,
मैं उंगलियों की पोरों से देख देख कर
पढ़ती रही......
डूबती रही इस कहानी के
तिलिस्म में
लफ्ज़ दर लफ्ज़ पढ़ लिया
तुम्हें भरोसे की इबारत से,
याद हो गए.....
जज़्ब हो गए सब हर्फ़
मुझमें कुछ इस तरह..
कि कोई मुझे देखे
और तुम्हें पढ़ ले!!!!!