भरोसा
भरोसा


चुटकी भर सिंदूर रचकर मेरी मांग में
सात फेरों के संग एक रस्म और भी
निभाई थी हम दोनों ने..!
मुझे आज भी याद है तुमने एक
भरोसे के साथ मेरी हथेलियों पर
अपना पूरा ब्रह्मांड रख दिया था..!
मैंने उस ब्रह्मांड को अपनी
आगोश में भर लिया था,
आज तुम्हारे दो लफ़्ज़ों ने
कायल बना दिया की,
तुम खरी उतरी मेरे भरोसे
का मान रखकर..!
ना मैं खरी नहीं उतरी तुम्हारे
अनुराग ने मुझे हमेशा सराहा
तुमने जो दिया उसके
आगे मेरी कोई बिसात नहीं..!
मान तो रखना ही था अपने
अज़ीज़ का,
कैसे तबाह होने देती एक
अटूट भरोसे की डोर
मेरी ऊँगलियों से बँधी है..!
मैंने भी तो पाया है तुमसे एक
अनमोल सी ज़िंदगी का तोहफ़ा..!
खरे तो तुम उतरे हो मेरे हर ग़म
हर आँसू को अपनी पलकों पर
सजाकर रखा है
मैं तो बस महज़ चुटकी भर
कर्ज़ चुका रही हूँ तुम्हारी
असीम उदारता का, काश की
चुका पाती मैं भी आसमान सा भरपूर॥