भीड़ में भी अकेला समझता था।
भीड़ में भी अकेला समझता था।
चलता था मैं भी कभी भीड़ में,
अकेले होने का डर सताता था।
तपती धूप में चप्पल पहनकर निकलता था,
जलने से डर लगता था।
डर हर उस चीज से लगता था,
मुझे खुद को खोने से डर लगता था।
डरता था बेचैन होता था,
जमाने को कुछ भी कहने से पहले बहुत सोचता था।
सोचता था शायद इसलिए डरता था,
डर की वजह शायद मेरे अंदर ही थी।
अंदर थी, शायद इसीलिए भी बिलखता रोता था।
खुद की अच्छाइयों का शायद पता नहीं था,
तभी तो खुद को भीड़ में भी अकेला समझता था।