भार
भार
निज स्वार्थ के ही दास हैं जो,
कब निज हृदय के पास हैं वो।
मानवता महज उनमें बस रेंगती है,
जिन्दगी भी ऐसों को बस ठेलती है।
व्यसन औ दमन की कामना ही,
इनके स्वार्थपूर्ण हृदयों में खेलती है।
अनन्त काल ही से धरा भी,
इनके भार को मूक झेलती है।
निज स्वार्थ के ही दास हैं जो,
कब निज हृदय के पास हैं वो।
मानवता महज उनमें बस रेंगती है,
जिन्दगी भी ऐसों को बस ठेलती है।
व्यसन औ दमन की कामना ही,
इनके स्वार्थपूर्ण हृदयों में खेलती है।
अनन्त काल ही से धरा भी,
इनके भार को मूक झेलती है।