बेरंग नहीं मैं
बेरंग नहीं मैं
बेरंग नहीं मैं
क्यूँ बेरंग समझती है ये दुनिया
एक साथी के दूर जाने से
बिन उसके एक स्त्री का क्या
अपना कोई वजूद नहीं
सवाल उठते हैं हज़ारों इस दिल में
जिनका मिलता कोई जवाब नहीं
कहने को तो सब अपने हैं फिर
अपनेपन का क्यूँ अहसास नहीं
किस्मत को दोषी ठहराते हैं सब
नाहक ही समझाते हैं लोग
जैसे उसकी जिंदगी का अब
उसके पास हिसाब नहीं
सँवरने का हक़ तो उसे भी है
क्यूँ नज़रें उठ जाती उस पर
फिर सोचे क्यूँ वो भी उनको
जिन बातों का कोई आधार नहीं
रंग ज़िंदगी के यूँ मिट नहीं जाते
एक साथी के साथ छूट जाने से
हक़दार तो वो भी है ख़ुशियों की
बस सफ़ेद लिबास की मोहताज नहीं
क्यों बेरंग समझती है दुनिया
एक साथी के दूर जाने से