बेईमान होती...ये थकान...
बेईमान होती...ये थकान...
ये मेरे दिन की थकान
कितनी बार
इतनी बेईमान होती है...
कि होती तो मेरी है
पर अपने ईमान पर
बड़े ही चुपचाप
ये खुद को ढोती है!
मैं तो कतई नहीं चाहता
मेरे इस वक्त को खोना..
मुझे कतई पसंद नहीं
इस नींद भर देने वाली
थकान के आगोश में होना,
पर यह शायद खुद के
मुझमें होने से
उतनी परेशान होती है
जितनी मेरी परेशानी से
ये दुःख को
यूँ खुद पर ढोती है
और फिर चुपके से
मुझे बिना कुछ बताए
मुझे लपेट अपने दामन में
नींद से सुलह कर
जी भर कर मैं बनकर सोती है...
कि मेरे दिन की थकान
अपने ईमान पर बिल्कुल
सच्चे इंसान सी निर्भर होती है
और मैं फिर भी उसको
कहता रहता हूं बेईमान
क्योंकि बात तो
अपने-अपने ईमान की ही होती है!