ओह्ह... 'हमला'
ओह्ह... 'हमला'
अंधेरा घिरने से पहले
और दिन के उजाले के ढलने के
बीच के वक़्त को जहाँ
दुनिया में शाम नाम से जाना जाता है,
वहीं जब दिन के लगातार व्यस्त पेशे में
ये एक ठहराव आता है
मेरे घरौंदे में इसको
हमला-खेल रूप में मनाया जाता है।
घर के बड़े हॉल में
सोफे पर बैठा मैं
सुनता हूँ
साथ लगे कमरे में चल रही
सारी कानाफूसी को
जो माँ और बेटी
अक्सर अंजाम देती हैं
मुझे एक 'भौं' के भरोसे
चौंका देने के लिए!
सीढ़ी के करीब अचानक आवाजें
होने वाली होती हैं
और हॉल में मेरे ऊपर अचानक छापा
होने वाला होता है!
फ़िर भी मैं
ज़रा भी सावधान नहीं होता,
क्योंकि मुझ जैसे चौकीदार को
छकाकर ही तो
बिटिया रानी
दादा-दादी के महल की दीवार में
कर सकती है प्रवेश!
फ़िर उस 'भौं' से भौंचक्का
जब मैं बिल्कुल जड़ हो जाता हूँ...
मेरी बाँहों और पीठ को
खूब झकझोर कर देखा जाता है
और अगर मैंने
जागने, या भागने की कोशिश की
तो फ़िर घेर लिया जाता है
मुझे उसके चुंबन-हथियार के साथ...
और फिर एक चुप्पी
उसकी मीठी आँखों में
बताती है मुझे
कि मैं जो हार गया हूँ
उससे मैं और वो जीत गये हैं...
फ़िर दादा-दादी के कमरे की ओर
जो होता है हमला..
हमारे घर की दीवारें कहती हैं
इन पलों को
हमेशा के लिए रखा जायेगा कैद...
बिल्कुल...हमेशा के लिए
और एक दिन
जब कभी ध्वस्त होंगी ये दीवारें
तब फ़िर यहाँ लिखी जायेगी
ज़रूर फ़िर.. नये सिरे से ही..
एक और प्रेम-हमले की कहानी!