अ...हा...
अ...हा...
शायद नहीं... शर्तिया ही...
दुनिया की सबसे मासूम आँखें
जब भी देखती हैं
मेरी तरफ़
मैं भी बस और बस
देखता रह जाता हूँ उसको
जितने दर्द, जितनी दिक्कतें,
जितनी भी परेशानियाँ, जितनी आफ़तें
जो कैसे भी
घर कर गयी होती हैं
मन के भीतर
सब जैसे दौड़ भाग उठती हैं
बड़ी दूर
बस एक खिलखिलाहट की
उसके चेहरे पर
दस्तक के असर से
और फिर तो
सुकून और राहत के
ऐसे दौर उमड़ते हैं
मेरे घरौंदे के भीतर
वो, मैं और मेरा परिवार
जी उठता है
जैसे ज़िन्दगी के कई अनछुए पल
एक उसकी मुस्कुराहट में
करोड़ों मनोहारी-मनमोहक
यादों को संवारती
मुस्कुराहट बनकर...!
