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Ashish Anand Arya

Abstract

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Ashish Anand Arya

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बहती बोतल...

बहती बोतल...

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क्या रंग है उन बोतलों में

और क्या हलक में उतर कर आना है!

थोड़ा तो गहरा डूब कर जाओ

गिरते-गिरते तो न कह पाओ कि ये मयखाना है!

उड़ेलो इतना भीतर

कि बदनामी तो न बिखरे बाहर

वो भी भला क्या महफिल

जहाँ सुरूर बाद भी ‘होश’ में गुरूर रह जाना है!

भला रंग क्या है उन बोतलों में

और क्या हलक में उतर कर आना है!


पैमानों की कीमत का असली देनदार वही

जिसने कीमत को कभी गिनती मे नहीं जाना है

यहाँ तो बस जेब के दम पर आना है

और खुद को यहीं भूल कर चले जाना है!

क्या रंग अब बचा है बोतलों में

और क्या मुझसे उतर कर जाना है!


सबसे ख़ास आख़िरी आस

ये क्या प्यास का कोई मेहनताना है ?

खुदा ने ही नज़र किया है ये रंग

सबसे बेहतरीन… अंग-अंग का खुद खुदा हो जाना है!

क्या रंग भला किस बोतल का

क्या संग आदमी के बह जाना है!

महखाना नहीं बहाना है

मयखाना तो खुद आदमी का दीवाना है!


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