कोरोना वाला बाप...
कोरोना वाला बाप...
घड़ी में
वो शाम की सुइयाँ दिखते ही
ये सीना
रोज़ ही फिर तैयार हो जाता है..
कि अब बस बंद होगा ऑफिस
और कदम फिर कौंधेंगे ताबड़तोड़
सीधे घर की ओर,
और घर पहुंचते ही
आकर सीने से चिपट जाएगी
वो मेरी लाडली,
पर खयाल ये एक
मन में पनपते ही
उमड़ उठते हैं
इस एक खयाल को
मानो जैसे लूटते-कचोटते
ये कितने सारे-सारे-सारे बवाल
कि आया है जब से ये कोरोना वाला काल।
हर पल ही ज़िन्दगी
बनती जा रही बड़े-बड़े सवाल
कि रोटी और नौकरी
दोनों ही जीवन को अति ज़रूरी हैं
और किसी एक से भी बना पाना दूरी
असंभव मजबूरी है
पर ये नौकरी और रोटी वाले सवाल पर
जब भी लौटकर आते
घर से बाहर निकले ये कदम
साथ होते डर भरे सवाल
कि सबकुछ तो ठीक ही है न फिलहाल?
क्या अपनी नन्हीं जान के लिए
ले तो नहीं आया मैं कोई काल?
और फ़िर
ठीक बिल्कुल पहले सा ही
थका हारा ज़रूर होता हूँ,
पर आते ही
घर की दहलीज़ पर ही ठहर जाता हूँ,
कोई कदम अगला
अन्दर की ओर बढ़ाने से पहले पचास बार सोचकर घबराता हूँ
फ़िर वहीं रुका-रुका, सोचता और झाँक-झाँक देखता हूँ... ..
कहीं वो करीब कहीं इर्द-गिर्द दरवाजे के तो नहीं
पहले सारी शंकाओं से मुक्त हो लेता हूं
तभी घर के अंदर अपने मैं होता हूँ,
सच,
ये सीने में
सीने के टुकड़े की परछाईं से
बच-बचकर जीती ज़िन्दगानी है,
इसी एक असलियत में कैद हो गई
ये हर एक बाप की कहानी है!