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Ashish Anand Arya

Abstract

4  

Ashish Anand Arya

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गालों पर झील...

गालों पर झील...

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कुछ यादें बची हुई हैं

बहुत दिनों से उन्हें याद करने का मन है...

पर तन को ही नहीं मना पा रहा

मन को भला राज़ी करूँ मैं कैसे?

झर-झर बह उठते हैं

अहसास आँखों के पोरों से

जो एक का भी थाम दामन

उसके यादपन को जी लूँ मैं ऐसे!

खुद-ब-खुद मुँह तक जाने वाले

माँ के निवाले,

झट बाँहों में समेट लेने वाले भइया-दीदी

सुख के सारे पल करते मेरे हवाले,

वो अपने घर का आँगन

वो छत के आसमान उजले, कभी शीतल काले,

वो दोस्तों की बस्ती

वो मस्ती के साफ-सुथरे से प्याले,

होठों पर जीते थे जो अनगढ़ जवानी

अल्हड़ कहानियों के रंग उनमें पाले,

रूमानी सपनों की हिरासत में

अक्सर हम कैद रहने वाले

आज पल रहे हैं बकायदा

बेशकीमती खुशियों पर टाँग कायदों के ताले

कि अब बस कुछ यादें हैं बची हुई

बड़े चुपके से जिन्हें याद करने का मन है...

पर मन फिर से राज़ी नहीं

गालों से होकर

तन पर तनने वाली

फिर नयी धार सहने को...!


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