बेबस बुढ़ापा
बेबस बुढ़ापा
सारी उम्र लुटा कर , मकान के सबसे पुराने कोने में,
अकेला लेटा सोच रहा ,टूटी खाट के बिछोने में ।
भर कर आंसू अपनी अधखुली सी बूढ़ी आंखों में ,
शायद यूँ ही कटेगी बची हुई उम्र तन्हाई में रोने में ।।
सारी हसरतें, चाहतें और अरमान दबाकर ,
अपने बच्चों के भविष्य के लिए ,खुद को जला कर ,
इक आशियाना बनाया खून पसीना बहा कर ,
क्या ये मेरा घरौंदा है, बनाया जो मैंने सपने सजा कर ?
आज माना कि नज़र मेरी कमज़ोर लगती है ,
पर मिज़ाज़ में कड़वाहट अपनो के साफ झलकती है ।
कभी चलना सिखाया था जिनको उंगली पकड़ कर ,
आज उनको मेरी मौजूदगी, इस घर में अखरती है ।
अपनो से तिरस्कृत हो अश्क के कतरों को महसूस किया ,
जब दो रोटी की खातिर ,अपनो ने मायूस किया ।
झुकी कमर , कांपते हाथ, बेसुध , बदहवास सा ,
सहारे की चाहत में ,अपमानित होने का एहसास सा ।
रहमो करम पर सांसे काट रहा अनमना सा ,
अपने ही घर में अजनबी, बेगाना सा ।
पथराई आंखों से देखता , सोचता यूँ बेबस बैठ कर ,
क्या ये मेरा ही घरौंदा है ,बनाया जो मैंने सपने सजा कर ?
शायद इनके लिए मैं इक बोझ बन गया हूँ ,
इनके जीवन का एक रोग बन गया हूँ ।
पर मुझे रखना शायद इनकी मजबूरी है,
मुझसे ज्यादा इनको मेरी मासिक पेंशन ज़रूरी है ।
महीने की पहली तारीख को आ जाते हैं ,
कांपते हाथों हस्ताक्षर गलत हो जाते हैं ,
तो मेरे बच्चे मुझसे ' नाराज़' हो जाते हैं ।
ज़िंदा हूँ इसी आस पे कि इक बार ही सही
मुझे " पिता जी " तो कह जाते हैं ।
यहां खून के आंसू पी जाता हूँ दिल जला कर ,
क्या ये मेरा ही घरौंदा है बनाया जो मैंने सपने सजा कर ?