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Suresh Koundal

Tragedy

4.8  

Suresh Koundal

Tragedy

बेबस बुढ़ापा

बेबस बुढ़ापा

2 mins
455


सारी उम्र लुटा कर , मकान के सबसे पुराने कोने में,

अकेला लेटा सोच रहा ,टूटी खाट के बिछोने में ।

भर कर आंसू अपनी अधखुली सी बूढ़ी आंखों में ,

शायद यूँ ही कटेगी बची हुई उम्र तन्हाई में रोने में ।।

सारी हसरतें, चाहतें और अरमान दबाकर ,

अपने बच्चों के भविष्य के लिए ,खुद को जला कर ,

इक आशियाना बनाया खून पसीना बहा कर ,

क्या ये मेरा घरौंदा है, बनाया जो मैंने सपने सजा कर ?


आज माना कि नज़र मेरी कमज़ोर लगती है ,

पर मिज़ाज़ में कड़वाहट अपनो के साफ झलकती है ।

कभी चलना सिखाया था जिनको उंगली पकड़ कर ,

आज उनको मेरी मौजूदगी, इस घर में अखरती है ।

अपनो से तिरस्कृत हो अश्क के कतरों को महसूस किया ,

जब दो रोटी की खातिर ,अपनो ने मायूस किया ।

झुकी कमर , कांपते हाथ, बेसुध , बदहवास सा ,

सहारे की चाहत में ,अपमानित होने का एहसास सा ।

रहमो करम पर सांसे काट रहा अनमना सा ,

अपने ही घर में अजनबी, बेगाना सा ।

पथराई आंखों से देखता , सोचता यूँ बेबस बैठ कर ,

क्या ये मेरा ही घरौंदा है ,बनाया जो मैंने सपने सजा कर ? 


शायद इनके लिए मैं इक बोझ बन गया हूँ ,

इनके जीवन का एक रोग बन गया हूँ ।

पर मुझे रखना शायद इनकी मजबूरी है, 

मुझसे ज्यादा इनको मेरी मासिक पेंशन ज़रूरी है ।

महीने की पहली तारीख को आ जाते हैं ,

कांपते हाथों हस्ताक्षर गलत हो जाते हैं ,

तो मेरे बच्चे मुझसे ' नाराज़' हो जाते हैं ।

ज़िंदा हूँ इसी आस पे कि इक बार ही सही

मुझे " पिता जी " तो कह जाते हैं ।

यहां खून के आंसू पी जाता हूँ दिल जला कर ,

क्या ये मेरा ही घरौंदा है बनाया जो मैंने सपने सजा कर ?



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