मन्ज़िलों की चाह
मन्ज़िलों की चाह
बढ़ा जा रहा हूँ एक अनजानी सी राह में
बहे जा रही कश्ती यूँ जल के प्रवाह में
हौंसले बुलंद हैं चाहे मुश्किलें हज़ार हों
कदम नहीं रुकते हैं मंज़िलों की चाह में
साहिलों के सुकूं से है किसको इनकार
पर तूफानोँ से भिड़ने को हो रहा हूँ बेकरार
दिल में जोश आंखों में जनून हौसले बुलंद
संघर्ष की डगर में न है वक्त का इंतज़ार
मुश्किलें जरूर है मगर ठहरा नही हूँ
बाधाओं को देख तनिक सिहरा नही हूं
मन्ज़िलों को कहिए यूं इतना ना इतराएं
सब्र रखें आ रहा हूँ ,मैं अभी हारा नहीं हूँ
ना डगमगाए कदम फ़ासले देख कर,
ना घबराये अंगारों भरे रास्ते देख कर,
झुक गई खुद बा खुद कदमों में मेरे
वो मंजिलें बेइंतहा हौंसले देख कर.
परिंदों को मिलती हैं मंज़िलें यक़ीनन
आंधियों से भिड़ते ये उनके पर बोलते हैं
जीत लेते हैं दुनिया को अक्सर खामोशी से
इस ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं।