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Sheetal Jain

Abstract

4.5  

Sheetal Jain

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बड़ा निराला मेरा गाँव

बड़ा निराला मेरा गाँव

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अप्रतिम यह दृश्य, याद दिला रहा,

 रचा बसा यादों में गाँव,

 जहाँ खुले आकाश तले

हम खेले दौड़े नंगे पाँव 

भोर हुई पनघट से लौटे पनिहारिन 

कंकड़,पत्थर से हम मटका फोड़े,

नोंक झोंक में दिन वो बीते 

 

महिलाएँ सब संग मिल बैठे,

बहलाए एक दूजे के घाव

रीता की दादी उसके बाल गूँथे,

माँ पुष्पों को बीन,माला बनाए

पशु पक्षी भी आज़ादी मनाए,

समय पता नहीं कैसे बीत जाए।


गाँव की कच्ची राहों पर

सुबह से ही रौनक़ छा जाए

कोई

साग तरकारी बेचे,

कोई बच्चों के सपनों को 

खिलौने में गढ़े,

रेत भी वहाँ की मुझे सोना लगे।


बच्चों को हम अपनी कहानियाँ सुनाए

चोरी से अंबिया तोड़,छुप छुप कर खाएँ

जब सहेलियाँ माँगे, उन्हें अँगूठा दिखाए

हर तीज त्योहार, लिपाई में बिताए 

घर की दीवारों पर,चित्रकारी करे

होते थे कच्चे मिट्टी के घर

पर उनमें प्यार बसे

शहरों में घर तो बढ़े

 पर सब अपने में सीमित दिखे

 

अमृता शेरगिल का यह प्यारा सा चित्र 

मुझे कितनी बातें कहे।


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