बाबुल की बेटी
बाबुल की बेटी
उन हसीन आँखों के पीछे मैनें एक अजीब बेबसी देखी हैं,
उसकी बिदाई के वक्त मैनें उसके चेहरे पर एक बनावटी हँसी देखी है।
वो अपने बाबुल की नाज़ूक और प्यारी कली थी,
जो अब पराए घर फूल बनने चली थी।
घर हुआ सूना,माँ-बाप हुए पराए,
माँ-बाप हुए पूर्ण ,बेटी का घर बसाए।
बेटी के लिए भी ये जुदाई समन्दर के समान होगी,
क्या अब उसके पति के हाथों में उसकी ज़िदगी की कमान होगी।
न जाने क्यों एक सवाल मेरे मन में अक्सर खटकती हैं,
आखिर क्यों एक बेटी ससुराल और माएके के ही बीच अटकती है।
आखिर क्यों कोई बेटी के जज़बात को नहीं समझता,
उसके दिल में भी हैं कोई बात,क्यों कोई ये बात नहीं समझता।
कभी-कभी सोचता हूँ,काश ये फरेबी रस्मों-रिवाज़ सब भंग हो जाए,
और क्या माएका क्या ससुराल सब एक संग हो जाए।
सब एक संग हो जाए।।