अतृप्ति
अतृप्ति
पीय तुमको तो मयुर बन
अपने प्रेम का पंख फैला
बरखा में मदमस्त हो
मेरे आस – पास ही बसना था,
तुम तो मुझे चातक बना कर
खुद बरखा बन गये
क्या ऐसे प्रेम का इतिहास
हमें मिल कर रचना था ?
तुम साधारण बरखा बनते
अपने प्रेम से मेरा रोम – रोम भिगोते
लेकिन मुझे तो तुम्हारे इंतज़ार में
यूँ हीं सूखी की सूखी ही रहना था,
जब सब जोड़ों को देखती हूँ
एक आह सी निकलती है
झरझर आँसू बहते हैं
क्या मुझे ऐसे ही भीगना था ?
मैं यहाँ हर – पल राह तकती
प्यासी बैठी चिर काल से
अब आओगे तब आओगे
बताओ और कितनी राह तकना था ?
सब बरखा की बूंदों से तृप्त हो
उल्लासित हो झूम रहे
मैं बिरहन अकेली बैठी
तुम्हें स्वाति नक्षत्र की बूंद ही बनना था ?