अशोक
अशोक
आज टहलता गुजर रहा था,
निहारता पग-पथ को मैं
कि पड़ी मेरी नज़रें यकायक,
कुछ बिखरे गाढ़े धब्बों पे।
टटोला उन्हें नज़रों से छू के
तो ज्ञात हुआ कि थोड़े से,
फूलों की कुचली लाशें,
गिरी पड़ी थी, पेड़ो के नीचे।
उनके मलीन गंध को भाँप,
आँखों के पर्दे पर आप ही आप,
उनके जीवन्त पलों की
झिलमिल सी एक बिम्ब लहराई
हाय! उनके जवाँ दिनों की
याद आई।
कभी गर्भान्गित पेड़ की शाखों पे,
बसन्त में, ख़ुशियों की बहार ले
नन्हें कोपलों को फोड़,
जन्में होंगे वे, फागुन के भोर।
देख उन्हें दूसरी शाखों पर
बैठी, कोयलों का गॅूंजा होगा
हर्षित शोर
अथ क्षण-भंगुर जीवन दौड़।
चंद्रकला की लीला करते,
पूर्णिमा हुए एक पक्ष में
कंचन पंखुड़ घेरे तन से,
केसर फूटे लक्ष-लक्ष में।
रसगंधा के रति-सुगन्ध से,
रसिक खिचा चला आया होगा
रसधरा-रस पीते पीते,
उसको गले लगाया होगा।
झूमी होगी डाली-डाली
देख हर्षाया होगा माली।
बीत रहे दिन रंग-रलियों में,
हरियाली में उमर गुजारी
फिर आया पतझड़ का मौसम,
जीवन पथ में रात वो काली।
तरू-ग्रीवालिंगित प्रसून की,
घड़ी बिछड़ने की अब आई;
पतित हुआ कल टूट, पृथक हो,
कुटुम-वृक्ष ने भी दी विदाई।
मंजर उन यादों के घुलते,
आँखें मेरी डब-डबाईं।
ऊपर ताका शोकित हिरदय,
तरूवर से जब आँख मिलाई।
यूँ था झूम रहा ‘अशोक’ वो,
मानो कुछ बीता ही न हो;
औ लहराती ‘बोधी’ की शाखें,
जैसे मुझसे ये हों कह रहीं-
तो क्या जो एक अंग हुआ भंग?
गोद मेरी एक बार जो उजड़ी!
मुझे आज ग़म तनिक नहीं, क्यों?
आने वाली नस्ल है, खड़ी।
लौट बहारें जब आएँगी,
हरियाली फिर संग लाएँगी।
फिर फूटेंगे मंजर-कोपल,
फिर गूँजेगी गीत से कोयल
रसिक प्यास में फिर आएगा,
जीवन-चक्र चलता जाएगा।