अपनी ढपली, अपना राग
अपनी ढपली, अपना राग
अरे ! कहाँ हम जाकर गाएँ ?
अपनी ढपली, अपना राग।
कौन सुनेगा ? किसे सुनाएँ ?
अपनी ढपली, अपना राग।
रोज-रोज का गाना सुनना,
लोगों को है नहीं पसंद।
लोग हमारी बातें सुनकर,
कान किया करते हैं बंद।
कान खोलकर किसे बताएँ ?
अपनी ढपली, अपना राग।
कौन सुनेगा ? किसे सुनाएँ ?
अपनी ढपली, अपना राग।
सच्ची बातें भी बोलो पर,
नहीं समझते हैं कुछ लोग।
इसीलिए अक्सर हम करते,
जग वालों पर झूठ प्रयोग।
आख़िर हम किनको समझाए ?
अपनी ढपली, अपना राग।
कौन सुनेगा ? किसे सुनाएँ ?
अपनी ढपली, अपना राग।
लोगों में जब भरा हुआ है,
बेमतलब भारी-सा ज्ञान।
उनके आगे नतमस्तक है,
धरती का सारा विज्ञान।
उनको तब कैसे जतलाएँ ?
अपनी ढपली, अपना राग,
कौन सुनेगा ? किसे सुनाएँ ?
अपनी ढपली, अपना राग।।