"अपनी अपनी मंजिल"
"अपनी अपनी मंजिल"


मंज़िल सबकी अपनी अपनी
फिर क्यों राह तू दूसरों की अपनाए
शाश्वत नहीं कुछ भी यहाँ पर
जीवन मृत्यु का खेल पल पल चलता जाये
अपनी अपनी मंजिल है सबकी
फिर क्यों राह दूसरों की अपनाये
भटक रहा है दुनिया की चकाचौंध में
खुद को समझाने का समय ना मिल पाए
सब इक छलावा है दुनिया मेरे भाई
फिर क्यों तू इस मनचली दुनिया में फंसता जाए
अपनी अपनी मंजिल है सबकी
फिर क्यों राह दूसरों की अपनाए
जिस अम्बर ने दिया सहारा चाँद और सितारों को
वहीं घोर अंधरो में घिर कर रह रात के
साये में
मिल जाए जब नदियाँ सागर से
कहाँ फिर उसका अस्तिव रह खुद के होने में
अपनी अपनी मंजिल है सबकी
फिर क्यों राह दूसरों की अपनाए
झूठ- मूठ के मोह- माया में फँस कर
सच्चा जीवन क्यों व्यर्थ गवाए
अन्त समय जब आये जीवन में
फिर क्यों राम- राम का गाना मुख में आए
अपनी अपनी मंजिल है सबकी
फिर क्यों राह दूसरों की अपनाएं
नहीं कोई मंजिल तक साथ निभाता
संघर्ष ही जीवन का कड़वा सच कह लाए
लाख हो पग पग में घोर अंधेरा
कर्म की सीढ़ी को तू अपना शास्त्र बनाए।।