अपने : पराये
अपने : पराये
कितने गहरे हैं हम,वो समझ न पाए,
अपनों की भीड़ में,वही रह गए पराये।
लब्ज़ मेरे उनको, चुभते हैं शायद,
मेरी हसीं जैसे, कोई वार है उनपर,
जाने क्यों खफा हैं, नाराजगी है कैसी,
कर नहीं पाए, वो ऐतबार हम पर,
उड़ जाया करतें हैं प्रेम के शब्द सारे
कौन स्याही से अपना ,हम मुक्कदर लिखाए।।
अपनों की भीड़ में,वही रह गए पराये।
कितने गहरे हैं हम,जो यह समझ न पाए।।
साज श्रृंगार के हैं विरह राग जिनको,
स्वर प्रणय के मेरे वेदना उनमें भरते,
घृणा ईर्ष्या है उनको मुझसे इतनी सारी,
वो मेरे होंठों की मुस्कान से हैं डरते,
कर देते जलन में वो कृत्य ऐसे,
करने से जिनको लज्जा लजाए,
अपनों की भीड़ में,वही रह गए पराये।
कितने गहरे हैं हम,जो यह समझ न पाए।।
भर लें वो कितना भी विष अपने भीतर,
चंदन सा मैं, नहीं कभी जलन कोई दूंगा,
बताएंगे जब भी अपने हालात मुझको,
हरूं कष्ट उनके, यही कोशिश करूंगा,
उठा के लगा लूंगा हंस के हृदय से,
मदद मांगने कभी मेरे दर पे आए,
अपनों की भीड़ में, वही रह गए पराये।
कितने गहरे हैं हम, जो यह समझ न पाए।।
