अंकित शर्मा (आज़ाद)

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अंकित शर्मा (आज़ाद)

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खुशी

खुशी

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दिन में अपना हाड़ तपाकर,

सूरज को पश्चिम धकिया कर,

मुँह लटका कर चले हैं घर को,

ख़ुशी कमाने जो निकले थे।


पहले पहले खुश था बचपन,

फिर चिंता खुशियों की आई,

बोली मैया पढ़ ले लल्ला,

पड़ी मौज को है तरुणाई,


बचपन काले आखर के संग,

नूरा कुश्ती करके बीता,

और जवानी आई तब जब,

मौजों में ये मन गया रीता,


बोले बापू अभी कसर है,

पड़ी मौज को बड़ी उमर है,

थोडा जोर लगा ले प्यारे,

हम सब का भी जीवन तारे,


अब सपना मेरे मन में भी,

बड़ी बड़ी गाड़ी का था,

बड़ा सा बंगला , नौकर चाकर,

क्रेज फ्रेंच दाढ़ी का था,


बोला खुद से अभी उमर क्या,

पड़ी पचासों साल अभी

मौज करूंगा बिन हिसाब मैं,

पर जोड़ जुटा लूँ माल अभी,


किलकारी मेरे आँगन में ,

जो गूंजी आनंद हुआ,

शोर मौज का मेरे भीतर,

पहले से भी मंद हुआ,


सोचा अब इस अधेड़ को,

मौज मनाना क्या आये

खिला फूल जो नया है घर में,

खुशियाँ उसको मिल जाएँ,


यही सिलसिला सोचो कब से,

खुद को दोहराता जाता है,

दौड़ ख़ुशी की लगा रहे हम,

पर ख़ुशी कौन पा पाता है।


दिन में अपना हाड़ तपाकर,

सूरज को पश्चिम धकिया कर,

हो उदास वापस हैं घर को,

ख़ुशी कमाने हम निकले थे ।


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