अफसाना
अफसाना
अफसाना
मैंने एक अफसाना पढ़ा- देखा,
जब नज़र भरके ज़रा-देखा ।
तुम्हें ही सामने खड़ा पाया,
हर दफ़ा जब ख्वाबों को खुला देखा।
अभी तुम सो रहे हो आँखों में,
मैंने तब शहर-ए-जवाँ- देखा;
और सुबह जब तुमने आँखे खोलीं,
मैंने किरणों को तुममें रमा देखा।
तेरे दामन से लिपटते रहे हम,
ख़ाबिदा—तुमने धुआँ कहाँ देखा;
अश्क बह गए दरिया बनकर,
सागर ने नदियों का कारवाँ देखा।
तनहा शायर हूँ - यश
