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Mamta Singh Devaa

Abstract

4.5  

Mamta Singh Devaa

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' अंतर कल और आज का '

' अंतर कल और आज का '

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पकड़ ज़िंदगी के कुछ यादगार लम्हों को

बाँध कर रखा है मैने अपनी मुठ्ठी को ,

खोल दूँगीं तो वो फिसल जायेंगें

फिर वो लम्हें मेरे हाथ कहाँ आयेगें ,

बचपन के वो गजब के प्यारे दिन थे

सपनों से वो बेहद न्यारे पलछिन थे ,

हर बात पर अपनी ही ज़िद करती थी

अम्माँ की मैं ज़रा भी नही सुनती थी ,

सब कहते थे जब कितना सांवरा रंग है मेरा

फिर मेरा दिमाग चलता था होते ही सबेरा ,

सब नहा - धो अच्छे कपड़े पहन तैयार होते

मैं इतराती अपने चेहरे पर ओडोमॉस पोते ,

जोर - जोर से सब मुझ पर खूब चिल्लाते

ये मच्छर भगाने की क्रीम है सब मुझे बताते ,

मुझे लगता इसकी खुशबू तो इतन

ी अच्छी है

फिर क्यों गुस्सा होते हैं सब जैसे ये मच्छी है ,

इसको लगाने से मैं कितनी गोरी हो जाती हूँ

किसी को फिर मैं नही सांवरी नज़र आती हूँ ,

काश आज की तरह फेयर एण्ड लवली होती

चेहरे पर लगाते ही मैं तो पूरी गोरी हो जाती ,

ना सब डाँटते ना मुझपे अपना ज्ञान बघारते

सबके सामने मेरी गोरी चमड़ी को सराहते ,

अच्छा हुआ बचपन में सबको ये कमी दिखी

इसको दूर करने में मुझे अपनी प्रतिभा दिखी ,

बड़ी हुई तो रंग की बजाय हुनर से निखर गई

अपनी कामयाबी से मैं अंदर तक संवर गई ,

अंतर कल और आज का इतना प्रमुख हो गया

जो कल इतना मुख्य था आज ध्वस्त हो गया ।



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