अंतकाल
अंतकाल
एक अरसा बीता चलते चलते उसको डगर डगर,
मंज़िल का कोई ठोर नहीं है फिरता जाता वो नगर नगर,
पथ में पथिक अनेकों थें सब हुए ओझल इधर उधर,
कोई पहुंचा तल कोई रहा है चल कोई लौट गया अपने घर
वो ढोता जाता है कंकड़ पत्थर सब राह में ढेरों बिखरे है
कौन भूल गया जानें हंसता हाय ! कितने नग छितरे है,
एक एक कर चुनता जा रहा बिना कोई मोल जाने ही,
गति मंद हुईं बोझिल सीरे है चलता बटोही धीरे धीरे है ।
मंथर है वेग, धीमी है चाल, स्वेद रंजित पूरा कपाल
पाथेय का संकट, धूमिल राह,डगमग डगमग पंथी की चाल
छूटा स्वप्न असल तल का चकाचौंध में हाय ! भटक गया
ना ठोह कुछ ख़ुद कि ख़बर नहीं कब आयेगा अंतकाल !