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Anand Prakash Jain

Abstract

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Anand Prakash Jain

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वनवास के दिन

वनवास के दिन

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240


बड़े दिनों के बाद

लौट कर आया है

ये ऐसा अवसर प्यारा,

जब शहर की थकन को भुला देने को

घर आना हो पाया दोबारा।


बहनों का प्यार,

बड़ों का दुलार,

सब कुछ मिल गया

इन चंद लम्हों के ही सफ़र पर,

अभी अभी शहरी मिट्टी से

सन कर जो आया था

अपने घर पर।


घर से बाहर रहते हुए

अक्सर सोचा करता हूं,

ये वनवास के दिन

क्यों इतने ज़रूरी है ?


अपनों से ही दूर रह कर,

इतनी भागदौड़ करता हूं,

आखि़र ऐसी कोई मजबूरी है ?

क्यों ऐसा नहीं हो सकता,

लौट आऊं ममता के आंचल


और पितृत्व की छांव के हिलोरे खाने,

और छोड़ छाड़ कर सारे धतिंग

रह जाऊं हमेशा को अपने ही ठिकाने।

पर लौट कर आखि़र दोबारा तो जाना ही है,

क्योंकि जो ख़्वाब हम सभी ने

मिलकर संजोया था,

उस मंज़िल का रास्ता

इस आबाद कस्बे में नहीं

उस वीरान शहर के पास ही कहीं है।


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