चार दिन की जिन्दगी
चार दिन की जिन्दगी
जब चार दिन की ही है जिन्दगी
फ़िर गिरने से काहे को डरना,
दोबारा उठकर लड़ने में आखि़र हर्ज ही क्या है?
चार दिन बाद तो वैसे भी है मरना।
ये दुनियां जो चाहें कहती रहे
इसके मुफ़लिस* लब्जो से मुझे क्या करना,
मुझे तो हरगिज़ अपना सर्वोत्तम पाना है
चार दिन बाद तो वैसे भी है मरना।
मेरी हार जीत तो मैं ख़ुद तय करता हूं
दूसरों के ख्यालों से मुझे क्या करना,
अपनी शर्तों पर गुज़र किया है आगे भी करूंगा
चार दिन बाद तो वैसे भी है मरना।
आत्मसम्मान की जंग में गर मिटना नैसर्गिक हो
फ़िर भी भिड़ने से मुझे नहीं है डरना,
बच गए तो सुकून से रह सकेंगे बाक़ी
चार दिन बाद तो वैसे भी है मरना।
