अंतहीन चक्र
अंतहीन चक्र
यही प्रकृति है इस देह की,
जब तक रहती है आत्मा विराजमान,
मानव देखता है स्वप्न नए,
रचता रहता है नए कीर्तिमान।
अंतकाल फिर मिलती है काया ‘उसमें'
मिट्टी हो जाती है फिर मिट्टी,
खोकर अपना आस्तित्व इस धरा में,
एकाकार होता है ईश से।
नव निर्माण के लिए आतुर और,
पाकर नर्म गोद इस धरती की,
अंकुरण होता है फिर,
जैसे कोई कोमल कोपल नयी।
फैलाती है शाखाएँ,
इस दिशाहीन जगत में,
रचती है जाल रेखाओं का,
मायाजाल अनगिनत आशाओं का।
चक्र चलता रहे यूँही अंतहीन,
जन्म, मरण और फिर जन्म कहीं,
भ्रमित है मानव, संभवतः,
क्या, क्यों और कहाँ,
होना है स्थिर मुझको अंततः।