एक ही घर में दो मकान
एक ही घर में दो मकान


उहह ! एक सिसकी सुनाई दी
‘नहीं, नहीं मैं तो कभी हाथ नहीं उठाता’
‘देखिये तो सही, मेरे कई दांत तोड़ डाले’
कृत्रिम जबड़ा जब निकाल दिखाती है वो
अनायास ही याद आता है उसका कथन
फिर-
‘नहीं, नहीं मैं तो कभी हाथ नहीं उठाता’
पुलिस थाने में भी रिपोर्ट दर्ज है-
‘अथाह रक्त स्त्राव, गुप्तांग पर छड़ से वार हुआ’
अरे ! जब हाथ नहीं उठाया कभी तो
कैसे वो घाव हुआ, कैसे शरीर तार-तार हुआ ?
बच्ची सहमी है, बेटा गुस्से से उबल रहा है !
सोचती हूँ- ये परिवार कितनी दहशत में पल रहा है ?
एक ही घर में दो मकान नज़र आते हैं।
एक कसकता है, टीसता है, आह भरता है
दूजा दूसरी मंज़िल पर राजसी ठाठ रखता
है
एक में कसमसाते हैं तीन जन
दूजे में एक शान से पसरता है।
सवाल फिर कौंधता है- ‘आखिर मुद्दा क्या है ?
क्यों बीवी-बच्चों का हँसना-खेलना उसे अखरता है ?
आखिर पितृ-धर्म से वो क्यों कतरता है ?
माँ-बहिन अपनी हैं, होती ही हैं
सात-फेरे लिए बीवी-बच्चे भी तो अपने हैं
‘उनके हिस्से का सुख उनको मिले’ -
क्या ये केवल उनके ही सपने हैं ?
टूटना, बिखरना, जड़ों से उखाड़ देना मुश्किल नहीं
गुस्से की एक लहर काफ़ी है
सत्रह वर्षों का कहर क्या काफ़ी नहीं
और कितना तड़पना है ?
बूँद –बूँद को और कितना तरसना है ?
माँ अपनी है तो बच्चों की माँ भी अपनी है
ये भी तो समझना है।