अन्त का प्रारम्भ
अन्त का प्रारम्भ
मेरे जज्बातों को पैरों तले कुचल जब तुम मुस्कराये
मुझ पर बार -बार जुल्म कर जब तुम मुस्कराये
' कमजोर हूं मैं' ' गुलाम हूं मैं '
तुम खूब चिल्लाये
पुरुषत्व की महानता पर जब तुमने गीत गाये
तो जख्मी हुआ मेरा हदय हर पल
तुम्हारे दिये जख्म धीरे -धीरे नासूर बन गये
और रिसने लगे बनकर लावा मेरी रूह पर
एक पावक स्वतः ही जल उठी और जलाने लगी मेरा रोम -रोम
क्षीण कर मेरी सहनशक्ति उतर आई मेरी आँखों में
अभी बन्द कर ली हैं मैंने आंखे
मगर ध्यान रहे ! अब बढे़ तुम्हारे कदम मुझ पर अत्याचार करने
जिस्म ही नहीं आत्मा पर प्रहार करने
तो मैं आँखे खोल लूंगी.....
पावक भरी आंखों का खुलना
प्रारंभ है तुम्हारे अन्त का......