अनोखे अहसास
अनोखे अहसास
खिले थे सुबह जो फूल, शाम देखते ही मुरझा गये,
खुशबु ऐसी छोड़ गए पीछे कि सारे चमन को महका गए।
बगैर हौंसलों के मंजिल चाहते थे जो, थोड़ी सी मुश्किल से क्यों घबरा गये।
देख प्यासी धरती का रूखापन, घने बादल आकाश में फिर से छा गए।
मसीहा गरीबों के लगते थे जो, वो ही उनका हक छीन कर कर खा गए।
छिपते फिरते थे दिन के उजालों में जो, अंधेरी रात को देख कर क्यों घबरा गये।
दिए थे दुख दर्द अपनों ने जो हमें, छुपा लिए झोली में इतने, कि उन के खाते में सभी सुख आ गये।
कौन समझता है अपनों को आखिर सुदर्शन, सभी ने अपनी अपनी डफली, अपने अपने राग अपना लिये।