अनकही दास्ताँ .......
अनकही दास्ताँ .......
मैं अपनी धुन में चल रही थी
अपने कुछ सपने बुन रही थी
खुद से सफर तय करने वाली मैं .....
आज एक बंधन में बंध रही थी
बंध गई जब समझा जाना
बंदिशो का ये तराना
मैं अब मैं नहीं रही थी
मुझ पर जिम्मेदारियां दी गई थी
क्या सिर्फ मैं ही जिम्मेदार बनूं
हर बात की क्या मैं ही दावेदार बनूं
पहले मैंने अपना घर छोड़ा
फिर अपने नाम को किसी ओर के साथ जोड़ा
जोड़ा चलो ये भी सही था
लेकिन उसके पास मेरे नाम का तो कुछ नहीं था
मैंने उसके लिए सिंदूर लगाया
उसने मेरे लिए कौन सा रंग लगाया
मैंने अपने हर रिश्तो को सिर्फ उसके लिए छोड़ा
और उसने ये कहा तू होती कौन है .....
तू होती कौन है जो मुझे समझाती है
मैं तुझे इस घर में लाया हूँ
तू होती कौन है जो मुझ पर हक़ जताती है .....
