अंधेरों का ख़ौफ़
अंधेरों का ख़ौफ़


किसको नहीं है और
कहाँ नहीं है ख़ौफ़
सबको है सब में है
यह रात का सन्नाटा
यह अंधेरों की चादर
इस ख़ौफ़ को और भी
भयावह बना देती है
सुदूर बस्ती में कुत्तों के
भौंकने का स्वर
अपने चरम पर आने
को आतुर
क़ब्रों में सोए
साजिन्दे-बाशिंदें
जिनकी गिरफ्त में सो चुकी
उनकी तमाम ख़्वाहिशें
तमाम आरजुएं आज भी वो
उन दफ़न इच्छाओं को
ज़मीन की तलहटी में
खोजते है
लेकिन वो तो मर गए
खप गए
उनका क्या जो अब
नहीं रहे
जिनका वजूद एक याद
बन चुका है
डर तो उन वहशी दरिंदों
दानवों से है
जो अब अपने इस रात
की तन्हाई में
अपनी इंसानियत का
चोला उतार कर
हैवानियत का जामा पहन
अपनी आधारहीन स्तरहीन
आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए
अपनी अय्याशी के पहलू में
सज -धज कर निकलेंगे
आज फिर कोई अबला
निर्भया
दामिनी सलमा रज़िया इन
भूखे भेड़ियों के शिकंजे में
फंसकर अपनी अस्मत से
ही नहीं
अपने इंसान होने नारी होने के
खामियाजे को भुगत कर
जर्जर और निर्जर हो
अपने ईश्वर अपने अल्
लाह!
अपने सम्मान के लिए
इस हिजड़ों की बस्ती में
गुहार लगाएगी
और हम सब अपने
झूठे-खोखले
सम्मान को बचाने के लिए
टीवी के रिमोट से चैनल
यह कहकर बदल देंगे
कुछ नहीं हो सकता
इस देश का
अख़बार का पन्ना पलटते हुए
चाय की चुस्कियों के साथ कहेंगे
अफ़सोस कब तक ऐसा होगा
पुलिस कुछ करती क्यों नही
कुछ धरने प्रदर्शन कुछ
चीख पुकार शोरगुल
जिसमें वो जायज़ आवाज़
हमेशा के लिए दबा दी जाएगी
किसी ट्रक के नीचे कुचल कर
किसी पर एसिड फेंक कर
किसी को धर्म की आड़ लेकर
दोषी बना कर उसके ज़िंदा
होने को एक अभिशाप
करार दिया जाएगा
हम नहीं बदले है हम नहीं
बदलेंगे
यह अंधेरा एक दिन हमें भी
निगल जाएगा
जैसे हमारे अख़्तियार हमारे
अख़लाक़
हमारे एहसास को निगल
चुका है
हमारे आत्मसम्मान को
निगल चुका है
हमारी पुख़्ता पहचान को
निगल चुका है
अब गेहूँ के साथ घुन नहीं
पिसेगा
वो चक्की ही नहीं रहेगी
जिस पर
गेहूँ को तराशा जाता है
अब गेहूँ सड़ सड़ कर
गलेगा मरेगा......