अंधाधुंध मां-प्रकृति का शोषण
अंधाधुंध मां-प्रकृति का शोषण
अंधाधुंध मां-प्रकृति का शोषण,
करके हैं बहुविध उपजाए रोग।
प्रतिवर्ष 'मातृ-दिवस' मना करके,
प्रकृति मां पर जुल्म हैं ढाते लोग।
अति पावन मां-बेटे का होता है नाता
केश खींच करता प्रहार दुःखी न माता।
जिसके हित रातों को मां करती जगराता,
वही न कुछ पल देता आता है जब ज़रा रोग।
अंधाधुंध मां-प्रकृति का शोषण,
करके हैं बहुविध उपजाए रोग।
प्रतिवर्ष 'मातृ-दिवस' मना करके,
प्रकृति मां पर जुल्म हैं ढाते लोग।
जन्मभूमि जननी तो महान स्वर्ग से होती,
वक्तव्य ऐसे देने वालों की मां भी है रोती।
अविवेकपूर्ण स्वार्थसिद्धि में बुद्धि है सोती
तब व्यवहार में वक्तव्य न लाते हैं ऐसे लोग।
अंधाधुंध मां-प्रकृति का शोषण,
करके हैं बहुविध उपजाए रोग।
प्रतिवर्ष 'मातृ-दिवस' मना करके,
प्रकृति मां पर जुल्म हैं ढाते लोग।
जब सिर के ही ऊपर जल है हो जाता ,
मां से तब परिशोधन मुश्किल हो जाता।
परिणति में प्रकृति का रौद्र रूप है आता,
कीट-पतंगों जैसे काल के गाल समाते लोग।
अंधाधुंध मां-प्रकृति का शोषण,
करके हैं बहुविध उपजाए रोग।
प्रतिवर्ष 'मातृ-दिवस' मना करके,
प्रकृति मां पर जुल्म हैं ढाते लोग।
