अमर
अमर
राह तक रही थी माँ
सरहद से बेटा आ रहा लौटकर
लाड़ले को देख कफ़न मे लिपटा
बिखर गई वह टूटकर
उसकी अंधी ममता को
न यकीं हुआ थमी सांसों पर
मा रो रो के मनाने लगी
लाल बैठा हो जैसे रूठकर
वह बुला रही थी गोद में उसे
वात्सल्य का वास्ता देकर
वह गहरी नींद सो चुका था
देश पे अपने प्राण खोकर
यू तो परिवार का रखवाला
मगर वह खुद आज निराधार था
गुरूर से तनी गर्दन का
थके कंधों पे पिता के भार था
आंखों के किनारे बाढ़ रोक
वह तसल्ली दे रहा विरमाता को
साथ में दोनो नमते और
कोसते रहे विधाता को
सिंदूर पे जिसकी आफत आई
दुनिया उसकी थम गई थी
निश्चल मुख एकटक आंखे
वह बरफ की तरह जम गई थी
जलने को थी जब चिता
वह ताप से उसके पिघल गई
सोच के साथ जन्मों के वादे
वह साथ आखिरी निभाने निकल गई
नन्हे मुन्ने परिंदों का
घनेरा घोंसला टूट चूका था
सिर पे हाथ रखनेवाला
हाथ हाथों से छुट चूका था
वह वही लेटा चुपचाप
सारी बाते सुन रहा था
शुरू से लेकर अंत तक
स्मृतिया नए से बुन रहा था
देश पे कुरबान हो के
उसका नाम अमर हो चूका था
ओढ़ के आंचल भारत मा का
वह सुकून से अब सो चुका था।