अक्स
अक्स
क्यों इतना मजबूर मेरा वजूद नजर आता है,
उलझा-उलझा बड़ा फिजूल नजर आता है..
अपनी आँखों के बिखरते सपनों का,
कतरा-कतरा ज़हर सा नजर आता है..
हम ढूंढ़ते रहे जिन गलियों में खुद की परछाई,
उन गलियों में अंधेरा ही नजर आता है..
वो ख्वाहिशें जो उड़ती रही मेरे नभ पर,
आज सिमटी सी बेजान नजर आती हैं..
वक्त का खेल भी निराला है,
कभी खुशी कभी घम का सिलसिला पुराना है..
डर लगता है तन्हाइयों की गहराइयों से,
कहीं गुमशुदा सा मेरा अक्स नजर आता है..
कहीं गुमशुदा सा मेरा अक्स नजर आता है।।