अकेला इंसान वो!
अकेला इंसान वो!
उसे देखो,
वह अपनी ही जंग में
खुद से ही खफा है
कि क्यूँ जिंदगी उसकी
मुश्किलों का मकान है।
जिंदगी न जंग है
न ही गम का पैगाम है
लेकिन उसे यही मानने की जिद है
क्यो उसे ये झूठा
इलहाम है।
सुकून डरा हुआ
खड़ा है उससे कोसों दूर
उसके ही जंगी जुनून से
फिर वही कहता फिरता है
कि वो अकेला इंसान है।
ख़ुद आईना उसे
देखने की फुर्सत नहीं,
हाथों में पत्थर भी पकड़े है
गुम सा है रास्तों पर
परछाइयों से परेशान है।
कमबख्त वो मानता नही
मेरी आजमाई असीरी की बाते
अब किस हद जाऊँ समझाने
गाफिल उलझता सबसे
सरेशाम है।
हर बार तय यूँ करें
कि उससे तगाफुल छोड़ें
अब उसे उसके हाल पर छोड़े
जालिम रूठ जाता है कह के
वजूद मेरा उसका इमकान है।
