अजनबी इश्क़
अजनबी इश्क़
अजनबी सा यह इश्क़ मेरा,
कभी रु-शनासी लगता है
नजरें तरसती हैं हरबार
एक दीदार को उसके
यह बातें सिर्फ ख्वाब बन रही जाती है
मिलकर भी जुदा हैं मुझसे
पाकर भी खोए हैं
धड़क उठता है यह दिल भी सीने में
जब कभी तेरी एक झलक दिख जाती है
ना चाहकर भी यह प्यार बढ़ता जाता है
अजनबी सा यह इश्क़ मेरा
कब रु-शनासी लगता है
ख़्वाब उसके ही यह आंखें हर बार बुने
रोकना चाहो दिल को मगर
हर लम्हा यह सुनने से इनकार करे
उसको पाने की दुआ
मंदिर चाहे मस्जिद में हर बार करुं
अपने इश्क़ का यह किस्सा
अब जाहिर सरे आम करूँ
एक नज़र से तेरी इस दिल को सुकून आता है
खुद की ही अब ना रही मैं
हर पल मुझमें तू धड़कता है
जग को है खबर कबकी इसकी
एक तू ही इन सबसे बेगाना रहता है
अजनबी सा यह इश्क़ मेरा
कभी रु-शनासी लगता है....