ऐसा गर हो पाता
ऐसा गर हो पाता
सोचो, गर ऐसा हो पाता
धरती उग पाती
आंगन के गमलों में।
ऐसा गर हो जाता
रंग देते
नीले सर सागर,
हरियाले सुंदर जंगल;
पहले अपना देश उकेरते
फिर चारों ओर विदेश बसाते।
ऐसा गर हो जाता
गमलों में ममता की मिट्टी भरते,
नेह प्रीत की खाद डालकर
प्रति दिन सींचा करते।
चित्र खींचते
जौ, जवार, धान के खेतों का
आम, नीम के बाग़ों का
अमराई के झूलों का
फूलों का, कलियों का
तितली, भौंरे, पंछी और हवाओं का।
ना भुखमरी होती, ना बीमारी
ना आती आंधी, तूफानों की बारी;
हर संकट से उसे बचाते
जब भी मन होता
चित्र नए बनाते, रंग नए सजाते।
सोचो, गर ऐसा हो पाता
धरती जो उग पाती
गमलों में
आंगन - आंगन में धरती होती,
ना ही मेरी, ना ही तेरी
बस, अपनी होती;
टुकड़े - टुकड़े होने का फिर दर्द न सहती
ना रोती।
सोचो, ऐसा गर हो पाता !