अभिव्यक्ति
अभिव्यक्ति
परम्परायें निभाते निभाते कोई टूट न जाये।।
स्व पोषित अभिव्यक्ति के आयाम बिखर न जाएं।।
मर्यादा विषाक्तता की प्रत्यय हो गई तो।।
जीवन जीने के परिमाण असीमित हो न जाएं।।
मैं विकल था विकलांग नही था।।
ऐसे अज़नबी भाव क्यूँ बहे मेरे अन्तस् में।।
प्रतिकर्षण के विकलित दंश अचंभित हो कर।।
फिर अनजाने में काहे विचलित करते मुझको।।
दरियादिली का मुझमें कोई जुनून न था।।
जनसेवा से पहले अपनी सेवा प्रथम कर्म था।।
फिर क्यों दान जबरदस्ती के लिए गए।।
धर्म कार्यक्रम औचक यकबक अजब तर्क था।।
हूँ सामाजिक इस समाज का एक अंग भी।।
स्वयंसेवी उनमानो का हूँ मैं इक प्रेमी भी।।
ग्रीवा कर्तन अरु संकोचन जैसे कर्म अकर्मा।।
ये तो ? प्रतियोगिता के सत्कार्यों में शामिल नाही।।
परम्परायें निभाते निभाते कोई टूट न जाये।।
स्व पोषित अभिव्यक्ति के आयाम बिखर न जाएं।।
मर्यादा विषाक्तता की प्रत्यय हो गई तो।।
जीवन जीने के परिमाण असीमित हो न जाएं।।
ॐ ॐ ॐ
