अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्री
अपनी जमीन तलाशती बेचैन स्त्री
यह कैसी विडम्बना है
कि हम सहज अभ्यस्त हैं
एक मानक पुरुष -दृष्टि से देखने
स्वयं की दुनिया
मैं स्वयं को स्वयं की दृष्टि से देखते
मुक्त होना चाहती हूं अपनी जाति से
क्या है मात्र एक स्वप्न के
स्त्री के लिए घर संतान और प्रेम ?
क्या है ?
एक स्त्री यथार्थ में
जितना अधिक घिरती जाती है इससे
उतना ही अमूर्त होता चला जाता है
सपने में वह सब कुछ
अपनी कल्पना में हर रोज
एक ही समय में स्वयं को
हर बेचैन स्त्री तलाशती है
घर, प्रेम और जाति से अलग
अपनी एक ऐसी जमीन
जो सिर्फ उसकी अपनी हो
एक उन्मू्ख आकाश
जो शब्द से परे हो
एक हाथ
जो हाथ नहीं
उसके होने का आभास हो
